मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तुम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥
अर्थ : मोह ही जिनका मूल है, ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्री रामचंद्रजी का भजन करो।
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अगुण सगुण गुण मंदिर सुंदर,
भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर।
काम क्रोध मद गज पंचानन,
बसहु निरंतर जन मन कानन।।
अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि हे गुणों के मंदिर ! आप सगुण और निर्गुण दोनों है। आपका प्रबल प्रताप सूर्य के प्रकाश के समान काम, क्रोध, मद और अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाले हैं। आप सर्वदा ही अपने भक्तजनों के मनरूपी वन में निवास करते हैं।
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धन्य देश सो जहं सुरसरी।
धन्य नारी पतिव्रत अनुसारी॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई।
धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥
अर्थ : वह देश धन्य है, जहां गंगा जी बहती हैं। वह स्त्री धन्य है जो पतिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है।
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श्याम गात राजीव बिलोचन,
दीन बंधु प्रणतारति मोचन।
अनुज जानकी सहित निरंतर,
बसहु राम नृप मम उर अन्दर॥
अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि हे श्रीरामचंद्रजी ! आप श्यामल शरीर, कमल के समान नेत्र वाले, दीनबंधु और संकट को हरने वाले हैं। हे राजा रामचंद्रजी आप निरंतर लक्ष्मण और सीता सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।
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संत सहहिं दुख परहित लागी,
पर दुख हेतु असंत अभागी।
भूर्ज तरु सम संत कृपाला,
परहित निति सह बिपति बिसाला॥
अर्थ : संत दूसरों की भलाई के लिए दुख सहते हैं अभागे दुर्जन दूसरों को दुख देने के लिए स्वयं कष्ट सहते हैं। संत जन भोजपत्र के समान हैं जो दूसरों के कल्याण के लिए नित्य विपत्ति सहते हैं।( और दुष्टजन पराई संपत्ति नाश करने हेतु स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे ओले खेतों को नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं।)
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नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं,
संत मिलन सम सुख कछु नाहीं।
पर उपकार बचन मन काया,
संत सहज सुभाव खग राया॥
अर्थ : संसार में दरिद्रता के समान कोई दूसरा दुख नहीं, संत समागम (संतों से मिलन) के समान कोई सुख नहीं है। हे पक्षीराज! वचन मन और शरीर से परोपकार करना संतो का यह स्वभाव है।
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अखिल विश्व यह मम उपजाया,
सब पर मोहिं बराबर दाया।
तिन्ह महं जो परिहरि मद माया,
भजहिं मोहिं मन वचन अरु काया॥
अर्थ : यह अखिल संसार मेरा उत्पन्न किया हुआ है और सब पर मेरी बराबर दया रहती है, उनमें जो भी जीव अभिमान और माया छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझे भजते हैं, वे सेवक मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं।
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सो सूत प्रिय पितु प्रान समाना,
यद्यपि सो सब भांति अज्ञाना।
एहि विधि जीव चराचर जेते,
त्रिजग देव नर असुर समेते॥
अर्थ : वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्रिय होता है, भले ही वह सब तरह से मूर्ख ही क्यों ना हो। प्रभु श्री रामचंद्र जी कह रहे है- ठीक इसी प्रकार से तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और दैत्यों के सहित जड़ चेतन जितने भी जीव हैं। (उन सभी पर मेरी बराबर कृपा बनी रहती है। )
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कोउ सर्वज्ञ धर्मरत कोई,
सब पर पितहिं प्रीति सम होई।
कोउ पितु भक्त बचन मन कर्मा,
सपनेहुं जान न दूसर धर्मा॥
अर्थ : कोई सर्वज्ञ और कोई धर्म में तत्पर होता है, परंतु पिता की प्रीति सब पर समान होती है। यदि कोई पुत्र मन वचन और कर्म से पिता का भक्त है और वह दूसरा धर्म स्वप्न में भी नहीं जानता तो
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एक पिता के बिपुल कुमारा,
होहिं पृथक गुन शीला अचारा।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता,
कोउ धनवंत वीर कोउ दाता॥
अर्थ : प्रभु श्री रामचंद्र जी बोले- एक ही पिता के बहुत से पुत्र होते हैं परंतु गुण और सील तथा आचरण में भिन्न भिन्न होते हैं। उनमें कोई पंडित, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनवान, कोई वीर और कोई दानी होता है।